अक्षय तृतीया: परंपरा की सौंधी खुशबू से डिजिटल इंदौर तक

अजय कुमार बियाणी, इंजीनियर, निपानिया, इंदौर की कलम से…
इंदौर वह शहर है जहाँ धर्म, परंपरा और आधुनिकता मिलकर एक अनोखा संगम रचाते हैं। चाहे त्यौहार हो या तीज, यहाँ हर अवसर को दिल से जिया जाता है।
अक्षय तृतीया भी ऐसा ही एक पर्व है — जो न केवल समृद्धि और शुभता का प्रतीक है, बल्कि इंदौर की आत्मा में रचा-बसा एक जश्न भी है।
जहाँ एक ओर पुराने मोहल्लों में आज भी तुलसी चौरे पर दीप जलते हैं, वहीं दूसरी ओर मोबाइल की स्क्रीन पर ‘ई-गोल्ड’ के ऑफर चमकते हैं।
इस लेख में, हम चलेंगे एक यात्रा पर — पुराने इंदौर की गलियों से लेकर आज के मॉडर्न मॉल्स और डिजिटल ऐप्स तक, अक्षय तृतीया के बदलते रंगों और अनबदलती भावनाओं के साथ।
पुराना इंदौर: जब अक्षय तृतीया सिर्फ धर्म का दिन था
पुराने इंदौर में अक्षय तृतीया का नाम आते ही मन में घर की चहल-पहल की तस्वीर उभरती थी। सुबह-सुबह आँगन को गोबर से लीपा जाता था, तुलसी चौरा सजाया जाता था, और घर-घर में पूजा की तैयारी होती थी। दादी-नानी रसोई में हलवा-पेड़ा बनाते हुए रसोई देवी का पूजन करती थीं।
पंडितजी घर-घर आकर पूजा कराते थे और बच्चे पेड़े या चॉकलेट के लालच में पूरी विधि ध्यान से सुनते थे। “अक्षय” यानी जो कभी क्षय न हो, और इसी भाव से महिलाएं अपने घर में समृद्धि, सौभाग्य और सुख-शांति की कामना करती थीं।
इस दिन का खास महत्व था — शादी, गृह प्रवेश, बिज़नेस की शुरुआत — सब बिना मुहूर्त पूछे शुरू हो सकता था। मोहल्लों में चर्चा होती — “भैया, अक्षय तृतीया है, शुभ काम के लिए कोई पूछताछ नहीं करनी!”
शादी के सीजन का बिगुल
इंदौर में अक्षय तृतीया मतलब शादी-ब्याह का आगाज। परदेशीपुरा से लेकर राजवाड़ा तक, गलियों में बैंड-बाजों की आवाज़ें गूँजने लगतीं। मोहल्ले के मैदानों में तंबू तान दिए जाते, हलवाई अपने चूल्हे सजा लेते और ऑर्केस्ट्रा वालों की एडवांस बुकिंग हो जाती।
बच्चों के लिए शादी का मतलब था — बिना बुलावे के पहुँचना और रसगुल्ले की प्लेट पर कब्जा जमाना।
बड़ों के लिए — एक के बाद एक कार्ड पकड़ा जाना और हर संध्या “आज किसकी शादी में जाना है?” तय करना।
अक्षय तृतीया के बाद इंदौर की गर्मी जितनी तेज होती, उतना ही तेज शादियों का जश्न भी।
सराफा और छप्पन दुकान की चमक
अक्षय तृतीया के दिन इंदौर का सराफा बाजार सोने की चमक से दिप-दिप करने लगता था। सुबह 10 बजे से ही बाजार गुलजार हो जाता, और “22 कैरेट या 24 कैरेट?” की चर्चाएँ हर गली में सुनाई देतीं।
“बिटिया के लिए अभी से थोड़ा-थोड़ा जोड़ रहे हैं” इस जुमले के साथ कंगन, बाली, सिक्के खरीदे जाते।
छप्पन दुकान पर मिठाइयों की दुकानों में ‘घी के लड्डू’ और ‘श्रीखंड’ की डिमांड आसमान छूती। दुकानदार मुस्कुराते हुए कहते, “भैया, अक्षय तृतीया है, घाटा भी आज लाभ बन जाता है।”
अब का इंदौर: जब अक्षय तृतीया व्हाट्सएप स्टेटस पर मनता है।
समय बदला है, इंदौर भी बदला है। अब पूजा की तस्वीरें इंस्टाग्राम पर आती हैं और व्हाट्सएप स्टेटस चमकते हैं।
बर्तन या आभूषण खरीदने की जगह अब लोग ‘ई-गोल्ड’ या डिजिटल गोल्ड में निवेश करते हैं। सराफा बाजार अब भी चमकता है, लेकिन ऑनलाइन वेबसाइटें उससे ज्यादा भीड़ खींचती हैं।
कई लोग घर बैठे मोबाइल ऐप से सोना खरीदते हैं और गर्व से कहते हैं, “देखा, हम भी परंपरा निभाते हैं!”
शादी अब होटल और रिजॉर्ट्स की कहानी
अक्षय तृतीया पर अब भी शादियाँ होती हैं, लेकिन अब वे बैंड-बाजों की बजाय डीजे की बीट पर होती हैं।
पहले मोहल्ले भर को न्योता जाता था — अब चुनिंदा गेस्टलिस्ट बनती है।
“भाई साहब, शादी उज्जैन में रिसॉर्ट में है, आपको इनविटेशन मेल कर देंगे!” — अब यह आम हो गया है।
पंडितजी अब ऑनलाइन मिलते हैं, और पूजा विधि यूट्यूब से देखी जाती है।
फिर भी, दादी-नानी की पूजा वाली आत्मीयता की बात ही अलग थी।
कुछ चीजें आज भी अक्षय हैं
बदलते समय के बावजूद कुछ चीजें आज भी वैसी की वैसी हैं।
माँ आज भी चाहती हैं कि अक्षय तृतीया पर कुछ शुभ खरीदा जाए — चाहे एक छोटा सा चांदी का सिक्का ही क्यों न हो।
दादी आज भी तुलसी चौरे पर दिया जलाकर भगवान विष्णु से समृद्धि की कामना करती हैं।
और बच्चे? मिठाई अब भी चाहिए — फर्क बस इतना है कि अब इंस्टाग्राम पर उसकी स्टोरी डाली जाती है!
इंदौरी अंदाज़ में अक्षय तृतीया
इंदौर वालों के लिए अक्षय तृतीया सिर्फ एक पर्व नहीं, परिवार संग बिताया गया अमूल्य समय है।
एक बहाना है — घर की रौनक बढ़ाने का, रिश्तों को फिर से सहेजने का, और उस ‘अक्षय’ भावना को जीवित रखने का जो कहती है कि कुछ बातें समय के साथ भी नहीं बदलतीं।
इंदौर में आज भी कई सामाजिक संस्थाएँ इस दिन को सेवा दिवस के रूप में मनाती हैं। राजेन्द्र नगर वृद्धाश्रम में हर साल ‘अन्नदान उत्सव’ होता है। इस साल वहाँ के बुजुर्गों ने कहा:
“अब अपने बच्चों से मिलने की आस नहीं, पर जब ये लड़के-लड़कियाँ खीर बाँटने आते हैं, तो लगता है भगवान ने भेजे हैं।”
अख़बारों में अक्षय तृतीया का उत्सव
” अखबार आज भी हर साल अक्षय तृतीया पर विशेष पृष्ठ निकालते हैं।
2023 की अखबार” में छपा था:
“इंदौर में अक्षय तृतीया पर रिकॉर्ड 22 किलो सोना बिका, पर सबसे कीमती वो हलवा निकला जो माँ ने बच्चों को अपने हाथों से खिलाया।”
उपसंहार: परंपरा की अक्षय धारा
समय बदला है, तौर-तरीके बदले हैं, पर अक्षय तृतीया की भावना आज भी इंदौर के दिल में ज्यों की त्यों धड़कती है।
चाहे वह सराफा बाजार में खनकती चूड़ियाँ हों, ऑनलाइन ऐप पर चमकती डिजिटल खरीदारी हो या फिर वृद्धाश्रम में बाँटी जा रही खीर — हर मुस्कान, हर शुभकामना इस बात का प्रमाण है कि अक्षय तृतीया सिर्फ एक खरीददारी का दिन नहीं, बल्कि संस्कारों का उत्सव है।
इंदौर आज भी जानता है कि असली ‘अक्षय’ तो वो प्रेम, वो आस्था है जो पीढ़ियों से पीढ़ियों तक विरासत में चलती रहती है।
शायद इसीलिए हर साल अक्षय तृतीया पर जब माँ के हाथ से प्रसाद का पेड़ा मुँह में जाता है, तो लगता है —
“सोने का सिक्का खो सकता है, पर माँ की ममता कभी अक्षय रहेगी।”
इंदौर का यही अंदाज़ है — परंपरा में बसा अपनापन और आधुनिकता में भी झलकता संस्कार।
और जब तक यह दिल धड़कता रहेगा, अक्षय तृतीया हर साल नई चमक, नई उमंग और नए सपनों के साथ इंदौर के आँगन में मुस्कुराता रहेगा।